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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 55 
महाराज नहुष के देवासुर संग्राम से लौट आने के पश्चात हस्तिनापुर में प्रतिदिन उत्सव होने लगे । चारों ओर हर्षोल्लास का वातावरण था । हस्तिनापुर के लिए गौरव के पल थे वे । हस्तिनापुर की प्रतिष्ठा देवलोक तक स्थापित हो गई थी । इस प्रतिष्ठा को स्थापित करने वाले थे महाराज नहुष । इसलिए महाराज नहुष की चारों ओर जय जयकार होने लगी । संपूर्ण भारत में उनके पराक्रम का डंका बजने लगा । महाराज नहुष पहले से ही चक्रवर्ती सम्राट थे । संपूर्ण भारतवर्ष के राजागण उनके आधीन थे । देवासुर संग्राम के पश्चात भारत के बाहर के राज्य भी महाराज नहुष की वीरता और शौर्य से भय खाने लगे थे । 

युद्ध से निवृत्त होने के पश्चात महाराज नहुष ने प्रजा के कल्याण के लिए बहुत से कार्य करवाये । उन्होंने वृद्धजनों, विकलागों, अनाथों, पतिहीनाओं, अकिंचनों आदि असहायों के रहने के लिए पृथक पृथक भवन बनवाये गये और उनमें इन लोगों को रखा जाने लगा । उनसे श्रम करवा कर जो राशि पारिश्रमिक के रूप में इन्हें दी जानी चाहिए थी , उसी से इन पर व्यय किया जाता था । जगह जगह कुंए, बावड़ी खुदवाये गये जिससे लोगों की प्यास बुझाई जा सके । मार्गों की मरम्मत करवाई गई । उनके दोनों ओर छायादार और फलदार वृक्ष लगवाये गये । स्थान स्थान पर चिकित्सालय और औषधालय खुलवाये गये । तीर्थस्थलों पर धर्मशालाऐं बनवाई गईं और तीर्थयात्राओं को सुगम बनाया गया । ऐसे अनेक कार्यों से प्रजा सम्राट नहुष की जय जयकार करने लगी । भारत के समस्त राजाओं से संधि के अनुसार कड़ाई से कर वसूला जाने लगा । धन की निकासी के समस्त द्वार यथा भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन, अनिर्णयन आदि पर सख्ती के साथ कार्य किया गया जिससे प्रजा के हित में अनेक कार्य संभव हो पाये थे । कृषकों के लिए सिंचाई के साधन तैयार किये गये । इन कार्यों से प्रजा बहुत प्रसन्न हुई और महाराज नहुष की कुशलता की कामना ईश्वर से करने लगी । 

राजप्रासाद में भी दिन ऐश्वर्य में गुजर रहे थे कि एक दिन महारानी अशोक सुन्दरी ने महाराज का ध्यान अपने बच्चों की शिक्षा की ओर दिलवाया । 
"महाराज, धृष्टता के लिए मैं क्षमा चाहती हूं किन्तु प्रकरण ही कुछ ऐसा है कि मुझे उस बारे में कहने को विवश होना पड़ रहा है । आप तो राज कार्य में इतने दत्त चित्त हो गये हैं कि आपका ध्यान बच्चों की शिक्षा को ओर जाता ही नहीं है । आपके पुत्र याती 12 , ययाति 10 , सयाति 8 और अयाति 6 वर्ष के हो गये हैं । वियाति 4 वर्ष और कृति 2 वर्ष के हैं अभी । वियाति और कृति अभी छोटे हैं किन्तु शेष चारों पुत्र तो विद्याध्ययन की आयु को पार कर चुके हैं । वियाति और कृति को छोड़कर शेष चारों पुत्रों के अध्ययन की अभी तक कोई भी व्यवस्था नहीं हुई है , आर्य । कहीं ऐसा न हो कि मेरे पुत्र समुचित विद्या ग्रहण करने से वंचित हो जायें । यदि ऐसा हुआ तो आपके पुत्र राजकार्य कैसे करेंगे" ? महारानी ने अपनी चिंता महाराज नहुष के समक्ष प्रकट कर दी थी । 

उन्होंने आगे कहा "आपके यहां से देवासुर संग्राम के लिए चले जाने के पश्चात मैंने इनके शस्त्रों का प्रशिक्षण तो प्रारंभ करवा दिया था किन्तु इन्हें अब शस्त्रों सहित संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञान की महती आवश्यकता है महाराज ! मेरा अनुरोध है कि अब आप शीघ्र ही इनके अध्ययन की समुचित व्यवस्था करवायें जिससे ये राजकुमार न केवल श्रेष्ठ नागरिक बनें अपितुअभूतपूर्व शासक भी बनें"। महारानी अशोक सुन्दरी के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थीं । 

महारानी की बातों से महाराज नहुष को भी अपनी भूल का अहसास हो गया था । उन्होंने राजपुरोहित से सलाह कर उचित गुरू की तलाश कर बच्चों को गुरुकुल में भेजने का आश्वासन महारानी को दे दिया । अगले दिन उन्होंने अपने राजपुरोहित विरधाचार्य को बुलवाया और अपने पुत्रों के अध्ययन के लिए उचित गुरू की तलाश करने को कहा । 

विरधाचार्य जी जैसे इसके लिए पहले से ही तैयार होकर आये थे । उन्होंने कहा "महाराज हस्तिनापुर में अभी कुछ समय पूर्व एक बहुत बड़े आचार्य "सम्पूर्णाचार्य" जी पधारे हैं । उन्होंने शास्त्रों की शिक्षा देवगुरू ब्रहस्पति से ली है और शस्त्रों की शिक्षा भगवान कार्तिकेय से प्राप्त की है । वे शस्त्र और शास्र दोनों में अद्वितीय हैं । मेरे मत में राजकुमारों के लिए उनसे श्रेष्ठ अन्य कोई आचार्य त्रैलोक्य में है ही नहीं । अत: राजकुमारों को कल से ही "सम्पूर्ण गुरुकुल" में विद्याध्ययन के लिए प्रेषित किया जा सकता है, महाराज" । राजपुरोहित विरधाचार्य ने अपनी बात समाप्त की । 

महाराज नहुष को यह सुझाव बहुत पसंद आया और उन्होंने इसके लिए अपनी सहमति प्रदान कर दी । अगले ही दिन महाराज नहुष और महारानी अशोक सुन्दरी अपने चारों पुत्रों याति , ययाति , सयाति और अयाति को लेकर "संपूर्ण गुरूकुल" पहुंच गये । महाराज और महारानी का सम्पूर्णाचार्य जी ने बहुत भावभीना स्वागत किया और गुरुकुल में आने का कारण पूछा । महाराज ने अपने चारों पुत्रों को अपनी गोद में बैठाकर उन्हें सम्पूर्णाचार्य को सौंपकर कहा "आचार्य, मेरे ये चारों पुत्र तब तक आपके पास रहेंगे जब तक आप इन्हें शस्त्र और शास्त्र दोनों में अजेय न बना दें । आप इन्हें जैसे चाहें, वैसे रखें , पर मुझे ये चारों राजकुमार हर विधा में निपुण चाहिए । इसके लिए आप जो उचित समझें, वह कार्य करें" । कहकर महाराज ने अपने चारों ज्येष्ठ पुत्रों के हाथ सम्पूर्णाचार्य के हाथ में दे दिये । 
"मैं अपनी ओर से पूर्ण प्रयत्न करूंगा महाराज कि मैं इन्हें हर विधा में अजेय बना पाऊं । इसके लिए मैं जी जान लड़ा दूंगा और आपको कभी शिकायत करने का अवसर नहीं दूंगा" । सम्पूर्णाचार्य ने चारों राजकुमारों के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा । 

महारानी अशोक सुन्दरी ने बारी बारी से प्रत्येक पुत्र को अपने हृदय से लगाया और उनके सिरों पर हाथ फिराते हुए उनके मस्तक पर अपने अधरों के निशान अंकित किये । वे भाव विह्वल हो गईं और उनकी आंखों से गंगा यमुना बहने लगी । जाते जाते वे याति से कहने लगीं 
"पुत्र याति, तुम सबसे ज्येष्ठ पुत्र हो इसलिए तुम्हारा उत्तरदायित्व सबसे अधिक है । अपने तीनों अनुजों का ध्यान एक पिता की तरह रखना पुत्र । यहां गुरुकुल में तुम इन तीनों के माता पिता भ्राता सब कुछ हो" । 
फिर वे शेष तीनों पुत्रों की ओर पलटीं और उनसे कहने लगी "ययाति, सयाति और अयाति, मेरी बात ध्यान से सुनो पुत्रो । अब तुम चारों भ्राता सम्पूर्णाचार्य की छत्रछाया में रहोगे । तुम्हारा सबसे ज्येष्ठ भ्राता याति तुम्हारे संरक्षक रहेंगे । इनकी आज्ञा के बिना कोई भी कार्य नहीं करना और मन लगाकर विद्याध्ययन करना । शिकायत का कोई भी मौका नहीं देना" । इस प्रकार महाराज और महारानी अपने राजप्रासाद आ गये । 

 श्री हरि 
21.7.23 

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